Natasha

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राजा की रानी

मेरे जवाब देने के पहले ही रतन की खाँसी का शब्द द्वार के निकट सुन पड़ा।

प्यारी ने पुकार कर कहा, “क्या है रतन?”

रतन ने मुँह आगे निकाल कर कहा, “माँ रात बहुत बीत गयी है- बाबूजी के खाने के लिए ले न आऊँ? रसोइया महाराज तो झोंके खाते-खाते रसोईघर में ही सो गये हैं।”

“अरे, तब तो तुममें से किसी ने भी अभी तक खाया न होगा!” इतना कह कर प्यारी घबड़ाकर और लज्जित होकर उठ खड़ी हुई। मेरे लिए खाने को वह अपने ही हाथों हमेशा लाती थी; आज भी लाने के लिए जल्दी से पैर बढ़ाती हुई चली गयी।

खाना समाप्त करके जब मैं बिस्तर पर लेटा तब रात का एक बज गया था। प्यारी फिर आकर मेरे पैरों के पास बैठ गयी। बोली, “तुम्हारे लिए अनेक रातें अकेले जागकर बिताई हैं- आज तुम्हें भी जागते रक्खूँगी। इतना कहकर मेरी सम्मति की राह देखे बगैर ही उसने मेरे पैर की तरफ का तकिया खींच लिया और बाएँ हाथ का सहारा लेकर वह लेट गयी तथा बोली, “मैंने बहुत विचार कर देखा, तुम्हरा इतने दूर-देश जाना किसी तरह भी नहीं हो सकता।”

मैंने पूछा, “तो फिर, क्या हो सकता है? इसी तरह यहाँ-वहाँ भटकते फिरना?”

प्यारी ने इसका जवाब न देकर कहा, “इसके सिवाय किसलिए बर्मा जा रहे हो, कहो तो सही?”

“नौकरी करने, यहाँ-वहाँ भटकते फिरने के लिए नहीं।”

मेरी बात को सुनकर प्यारी उत्तेजना के वश सीधी होकर बैठ गयी और बोली, “देखो, दूसरे से जो कहना हो कहना, किन्तु मुझे न ठगना। मुझे ठगोगे तो तुम्हारा इहकाल भी नहीं, पर काल भी नहीं बनेगा- सो जानते हो?”

“सो तो खूब जानता हूँ, अब क्या करना चाहिए, कहो तुम?”

मेरी स्वीकारोक्ति से प्यारी प्रसन्न हुई। हँसकर बोली, “स्त्रियाँ चिरकाल से जो कहती आई हैं वही मैं कहती हूँ। विवाह करके संसारी बन जाओ- गृहस्थ-धर्म का पालन करो।”

मैंने प्रश्न किया, “क्या सचमुच ही तुम खुशी होओगी?”

उसने सिर हिलाकर कानों के झूले हिलाते हुए उत्साह से कहा, “निश्चय से, एक दफे नहीं, सौ दफे। इससे यदि मैं सुखी नहीं होऊँगी, तो फिर और कौन होगा, बताओ?”

मैंने कहा, “सो तो मैं नहीं जानता; परन्तु, इससे मेरे मन की एक दुर्भावना चली गयी। वास्तव में, यही खबर देने मैं आया था कि ब्याह किये बगैर मेरी गुजर नहीं।”

प्यारी एक बार अपने कानों के स्वर्णालंकार झुलाती हुई महाआनन्द से बोल उठी, “ऐसा होगा, तो मैं कालीघाट जाकर पूजा दे आऊँगी। किन्तु, लड़की को मैं ही देखकर पसन्द करूँगी, सो कहे देती हूँ।”

मैंने कहा, “इसके लिए अब समय नहीं है, लड़की तो स्थिर हो चुकी है।”

मेरे गम्भीर स्वर पर शायद प्यारी ने ध्या,न दिया। एकाएक उसके हँसते मुख पर एक मैली-सी छाया पड़ गयी; बोली, “ठीक तो है, अच्छा ही हुआ। स्थिर हो गयी है तो परम सुख की बात है।”

मैंने कहा, “सुख-दु:ख तो मैं समझता नहीं राजलक्ष्मी, जो बात स्थिर हो चुकी है वही तुम्हें बताता हूँ।”

“प्यारी एकाएक गुस्से से बोल उठी, “जाओ, चालाकी मत करो, सब बात झूठी है।”

“एक भी बात मिथ्या नहीं है। चिट्ठी देखते ही समझ जाओगी”, इतना कहकर खीसे में से मैंने दो पत्र बाहर निकाले।

“कहाँ हैं, देखूँ चिट्ठी”, इतना कह हाथ बढ़ाकर प्यारी ने दोनों हाथों में चिट्ठियाँ ले लीं। उन्हें हाथ में लेते ही मानों उसके सारे मुँह पर अंधेरा छा गया। दोनों पत्र हाथ में लिये ही लिये वह बोली, “दूसरे का पत्र पढ़ने की मुझे जरूरत ही क्या है। बताओ, कहाँ स्थिर हुई है?”

“पढ़ देखो।”

“मैं दूसरे की चिट्ठी नहीं पढ़ती।”

“तो फिर दूसरे की खबर जानने की तुम्हें जरूरत भी नहीं है।”

“मैं नहीं जानना चाहती।” इतना कहकर ऑंखें मींचकर वह लेट गयी। किन्तु दोनों चिट्ठियाँ उसकी मुट्ठी में ही रह गयीं। बहुत देर तक वह कुछ नहीं बोली। इसके बाद वह धीरे से उठी, जाकर लैम्प तेज किया और मेज पर दोनों पत्र रखकर स्थिरता से बैठी। उनमें जो कुछ लिखा था सो शायद उसने दो-तीन दफे पढ़ा। इसके बाद वह उठ आई और उसी तरह फिर लेट गयी। बहुत देर तक चुप रहने के बाद बोली, “सो गये क्या?”

“नहीं।”

“इस स्थान पर मैं तुम्हें किसी तरह ब्याह न करने दूँगी; वह लड़की अच्छी नहीं है, उसे मैंने बचपन में देखा है।”

“माँ का पत्र पढ़ा?”

“हाँ, किन्तु काकी के पत्र में ऐसा कुछ भी नहीं लिखा है कि तुम्हें उसे गले में डालना ही पड़ेगा। और चाहे वह अच्छी हो, चाहे न हो, उस लड़की को मैं किसी तरह भी घर में नहीं लाऊँगी।”

“कैसी लड़की घर में लाना चाहती हो, बता सकती हो?”

“सो मैं इस समय कैसे बताऊँ? विचार करके देखना होगा।”

थोड़ी देर चुप रहने के बाद मैं हँसकर बोला, “तुम्हारी पसन्दगी और विवेचना के ऊपर निर्भर रहा जाय तो मुझे अपना कुमारपन उतारने के लिए आगे और एक जन्म ग्रहण करना पड़े- शायद, उसमें भी पूरा न पड़े। जाने दो, यथासमय, न हो तो दूसरा जन्म ग्रहण कर लूँगा। मुझे जल्दी नहीं है। परन्तु, इस लड़की का तुम उद्धार कर दो। पाँच सौ रुपये हों तो काम हो जायेगा, मैं उन्हीं के मुँह से सुन आया हूँ।”

प्यारी उत्साह में आकर उठ बैठी और बोली, “कल ही मैं रुपये भेज दूँगी। काकी की बात मिथ्या नहीं होने दूँगी।” फिर कुछ देर ठहरकर बोली, “सच कहती हूँ तुमसे, यह लड़की अच्छी नहीं है, इसीलिए मुझे आपत्ति है, नहीं तो...”

“नहीं तो...?”

“नहीं तो फिर क्या! तुम्हारे लायक लड़की जब ढूँढ़ दूँगी, उसी समय इस बात का उत्तर दूँगी, इस समय नहीं।”

सिर हिलाकर मैंने कहा, “तुम फिजूल कोशिश मत करो राजलक्ष्मी, मेरे लायक लड़की तुम किसी दिन भी खोजकर न निकाल सकोगी।”

वह बहुत देर तक चुप बैठी रहकर एकाएक बोल उठी, “अच्छा सो शायद न निकाल सकूँ, परन्तु तुम बर्मा जाओगे तो मुझे साथ ले चलोगे?”

उसके प्रस्ताव को सुनकर मैं हँसा। बोला, “मेरे साथ चलने का तुम्हें साहस होगा?”

प्यारी मेरे मुँह के प्रति तीक्ष्ण दृष्टि पात करके बोली, “साहस! इसे क्या तुम कोई बड़ा कठिन काम समझते हो?”

“मैं चाहे जो समझूँ, किन्तु तुम्हारे इस सारे घर-द्वार, माल-असबाब, जमीन-जायदाद आदि का क्या होगा?”

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